क्रिसमस पर सजा देहरादून का कैथोलिक चर्च:दूसरे विश्वयुद्ध में इटालियन कैदी ने दी नई पहचान, दीवारें बयां करती हैं इतिहास

क्रिसमस की धूम देहरादून में बीती रात से ही शुरू हो चुकी है। शहर की सड़कों से लेकर चर्च परिसरों तक रौनक नजर आने लगी है। सबसे ज्यादा चहल-पहल सेंट फ्रांसिस ऑफ असीसी कैथोलिक चर्च के आसपास दिख रही है, जहां पूरी इमारत रंगीन लाइटों से सजी है और श्रद्धालु देर रात से ही यहां पहुंचने लगे हैं। जैसे-जैसे दिन चढ़ेगा, यहां श्रद्धालुओं की भीड़ और बढ़ेगी। लेकिन सेंट फ्रांसिस चर्च की पहचान सिर्फ आज की रौनक तक सीमित नहीं है। जो लोग थोड़ा ठहरकर इसकी दीवारों की ओर देखते हैं, तो उन्हें शानदार चित्र देखने को मिलते हैं। हालांकि बहुत कम लोग जानते हैं कि इन दीवारों पर उकेरी गई ये कला किसी साधारण कलाकार की नहीं, बल्कि द्वितीय विश्व युद्ध के एक युद्धबंदी की है। ये एक ऐसा कैदी था, जिसने कैद में रहकर भी ब्रश उठाया और देहरादून में हमेशा हमेशा के लिए अपनी कला की छाप छोड़ गया। जब चर्च की दीवारें इतिहास बन गईं सेंट फ्रांसिस चर्च की कहानी 1856 से शुरू होती है। शुरुआती दौर में यह एक साधारण चर्च था, लेकिन 1905 के भूकंप ने इसकी इमारत को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया। इसके बाद 1910 में नया चर्च औपनिवेशिक शैली में, मजबूत दीवारों और ऊंची छतों वाला बना। कई दशकों तक यह चर्च सिर्फ एक धार्मिक केंद्र रहा। लेकिन इसे नई पहचान मिली 20वीं सदी के बीच, जब इसकी दीवारें सिर्फ ईंट-पत्थर नहीं रहीं, बल्कि इतिहास की किताब बन गईं। वो इतिहास, जो यूरोप की जंग से निकलकर देहरादून तक पहुंचा। देहरादून और द्वितीय विश्व युद्ध का छुपा रिश्ता द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान देहरादून सिर्फ शांत पहाड़ी शहर नहीं था। शहर के बाहरी इलाकों, खासकर प्रेमनगर में इटालियन और जर्मन युद्धबंदियों के लिए इंटर्नमेंट कैंप बनाए गए थे। इन्हीं कैंपों में एक कैदी था- नीनो ला चिविता। पेशे से चित्रकार, लेकिन हालात ने उसे कैदी बना दिया था। कैम्प की दिनचर्या सख्त थी, लेकिन उसके हाथ से ब्रश छिन नहीं सका। कागज न मिला तो दीवारें कैनवास बन गईं। एक पादरी, एक कैदी और एक ऐतिहासिक फैसला नीनो ला चिविता के जीवन की कहानी मोड़ तब लेती है जब चर्च के तत्कालीन पादरी फ्रांसिस लिके की नजर नीनो की कला पर पड़ी। उन्होंने प्रशासन से अनुमति मांगी की एक युद्धबंदी को चर्च की दीवारों पर पेंटिंग करने की अनुमति दी जाए। अनुमति मिली और 1946-47 के बीच नीनो ने चर्च के भीतर वो काम किया, जो आज उसकी पहचान बन चुका है। कुल 11 पेंटिंग्स उसने बनाईं, जिनमें सेंट फ्रांसिस ऑफ असीसी का पूरा जीवन, जन्म से मृत्यु तक, दीवारों पर उतर आया। दीवारों पर क्या-क्या दिखता है? इन पेंटिंग्स में सेंट फ्रांसिस सिर्फ संत नहीं लगते, इंसान लगते हैं- चार अन्य चित्रों में चार संत- मैथ्यू, मार्क, ल्यूक और जॉन दिखाए गए हैं। रंग ज्यादा भड़कीले नहीं, लेकिन भाव इतने गहरे कि देखने वाला ठहर ही जाता है। ये सिर्फ धार्मिक कला नहीं है कला इतिहासकार मानते हैं कि नीनो ने सेंट फ्रांसिस की कहानी में अपना दर्द भी उतार दिया। कैद, अकेलापन, घर से दूर रहने की पीड़ा, सब कुछ इन चित्रों में महसूस होता है। युद्ध खत्म हो चुका था, लेकिन इंसान के भीतर की जंग अभी बाकी थी। यही वजह है कि ये फ्रेस्को शांति की बात करते हैं। समय के साथ पेंटिंग्स खराब होने लगीं, लेकिन 2004 में इटली के कंजर्वेटर लोरेंजो कासामेंटी ने इन्हें नया जीवन दे दिया। क्रिसमस पर क्यों और खास हो जाता है ये चर्च क्रिसमस प्रेम, त्याग और करुणा का पर्व है। ठीक वही संदेश इन दीवारों पर भी है। इसलिए क्रिसमस के दिन जब चर्च भरा होता है, लोग सिर्फ प्रार्थना नहीं करते, वे दीवारों को भी पढ़ते हैं। यह चर्च अब सिर्फ पूजा का स्थान नहीं, बल्कि देहरादून की याददाश्त है जो बताती है कि जंग के बीच भी इंसान कला और आस्था के जरिए रोशनी ढूंढ लेता है।